Pratinidhi Gadhya Rachnaye in hindi MAHADEVI VARMA
प्रस्तुत संग्रह में महादेवी जी की प्रमुख गद्य-रचनायें अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, क्षणदा, संकल्पित, साहित्यकार की आस्था, श्रृंखला की कड़ियाँ की चुनिन्दा रचनाएं संकलित है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आभार
प्रथम संस्करण से
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के प्रसंग में प्रकाश्य पुस्तक ‘महादेवी : प्रतिनिधि गद्य-रचनाएँ’ के सम्पादन का दायित्व आयोजकों ने डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी को सौंपा था। इसकी सूचना मैंने डॉ. साहब को दी तो उन्होंने कहा, ‘‘अरे भाई, कई प्रकार के दबावों और आग्रहों के बावजूद अभी तक सम्पादन-कार्य से बचता आ रहा हूँ। यदि इसमें शुरू किया तो फिर आगे रोक पाना कठिन हो जायेगा। ऐसी स्थिति में आधा-आधा काम हम दोनों बाँट लेते हैं-यानी संकलन, सम्पादन तुम कर दो और भूमिका मैं लिख दूँगा।’’ और अन्त में जो उन्होंने कहा वह मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण है-‘‘इसी बहाने तुम्हारा भी नाम पुस्तक में चला जायेगा।’’ मैंने कभी नहीं सोचा था कि अनायास ही इस सुकृत्य का भागीदार बन जाऊँगा। चतुर्वेदी जी के स्नेह के कारण ही मैं किसी-न-किसी रूप में इस पुस्तक से जुड़ गया। उनकी इस उदारता के प्रति आभारी हूँ। बाद में परम आदरणीया महादेवीजी ने तथा भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने भी चतुर्वेदीजी के सुझाव का समर्थन कर मेरी स्थिति को यथावत् कायम रखा अतः उनकी इस भावना के प्रति भी कृतज्ञ हूँ। महादेवी जी के साथ रहकर कितना-कुछ पाया-उसमें एक कड़ी यह और है। आभार प्रदर्शन से उसका महत्व कम ही होगा। उनकी आशीष-पूर्ण स्नेह-छाया तो सदा है ही।
चतुर्वेदीजी का आदेश था कि -‘‘जो सामग्री पुस्तक में जानी है ठीक से पढ़ लो ताकि गलत न जाये।’’ (जो कि शायद जायेगी ही।) इस प्रकार दुबारा पढ़ने के क्रम में यह लगा कि- जो लोग यह मानते हैं कि ‘‘महादेवी के गद्यकार-रूप उनके कवि रूप से विचारों और शैली दोनों ही दृष्टि से थोड़ा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है’’ उनकी इस बात तथ्य है। बहुत प्रभावित करता है महादेवी का गद्य। मन के अन्तरतम में को छू लेता है। डॉ. लोहिया ने एक बार कहा था, ‘‘महादेवीजी भारत में सबसे अच्छा गद्य लिखती हैं। वे गद्य की राजकुमार हैं।’’
अपने अर्द्धशती से ऊपर लेखन-अवधि में महादेवी जी ने एकनिष्ठ होकर अबाध गति से अपने भावमय सृजन और कर्ममय जीवन की साधना में साथ-साथ संलग्न रहकर अपनी लिखी इस बात को सार्थक बनाया है-‘‘कला के पारस का स्पर्श पा लेने वाले का कलाकार के अतिरिक्त कोई नाम नहीं, साधक के अतिरिक्त कोई वर्ग नहीं, सत्य के अतिरिक्त कोई पूँजी नहीं, भाव-सौन्दर्य के अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं और कल्याण के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं।’’
पुस्तक में मेरा अपना कुछ नहीं है। मैं कर भी क्या सकता था, सिवा उपलब्ध सामग्री को सजा देने के। अन्त में कबीर के शब्दों में अपनी बात को समाप्त करना चाहूँगा :
‘‘मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सब तोर,
तेरा तुझको सौंपता क्या लागे है मोर !’’