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ग़ज़ल को जब हिंदी का अपना मुहावरा मिला तो वह गुजराती, राजस्थानी, अंगरेजी ग़ज़ल की तर्ज़ पर हिंदी ग़ज़ल कहलाने लगी| इससे पहले वह ग़ज़ल ही कहलाती थी| इसके बाद जब बुन्देली में कही जाने लगी तो उसका एक नया नाम बुन्देली ग़ज़ल हो गया | वैसे शेक्सपीयर के शब्दों में यह कहना भी सही है कि नाम में क्या रखा है? अलबत्ता हिंदी ग़ज़ल को इससे पहले उर्दू ग़ज़ल की एक लम्बी और समृद्ध विरासत मिली है जिसमें एक धारा हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की रही है| यह वैसे ही है जैसे उर्दू नावेल और हिंदी उपन्यास | बहरहाल यह खुशी की बात है कि इस समय ग़ज़ल ने लोकतंत्र के चलते लोकजीवी विधा का एक नया रूप धारण कर लिया है| इस लोकजीवी विधा का समय के साथ वैसा ही रिश्ता बना है जैसा अन्य विधाओं का और उसका वैसे ही विकास एवं परिवर्तन हुआ है जैसे अन्य साहित्यिक विधाओं का| यह अलग बात है कि उसने अपनी कला के पुराने रूप की रक्षा करते हुए उसे रदीफ़-काफियों और मतला-मक़ता के व्याकरण में संचालित कर उसकी अंतर्वस्तु को बदलते हुए शब्द के स्तर पर उसे एक नया रूप –विधान भी दिया है| आज भी उसका कोई एक स्थिर और बंधा हुआ रूप नहीं है वरन उसकी प्रतिष्ठा अनेक रूपों में है| वह अपने समय के साथ चलने और उसे बदलने की तरकीबों और उपायों में भी शामिल रहने का पूरा प्रयास कर रही है| उसके कई मोर्चे हैं| पहला मोर्चा तो वही वाचिक मोर्चा है जो मुशायरों-कवि सम्मेलनों में लोकप्रियता के स्तर पर चलता रहा है जिसमें अपने श्रोता-पाठक को भाव-प्रवाह में बहाकर ले जाने की यथास्थितिवादी कला का वाहवाही वाला एकायामी ठाठ देखने को मिलता है| दूसरा मोर्चा वह है जिसमें भाव के साथ यथार्थ का वह रूप है जिसमें बदलते समय की ठोस हकीकत को पहचानने और उसे ग़ज़ल का विषय बना देने की ज्यादा जगह रहती है| तीसरा मोर्चा उस मध्यवर्गीय ग़ज़ल का है जो जनधर्मी मुद्दों को उठाते हुए भी उसके असली जन-मोर्चे पर जाने से सकुचाकर ठिठक जाती है| जो उसके लोक-अनुभव संसार और जीवन-दृष्टि का हिस्सा नहीं बन पाती | यह खुशी की बात है कि महेश कटारे सुगम उसे जन-मोर्चे पर लाकर जन—कविता में बदल देने का कौशल और कला दोनों जानते हैं| ग़ज़ल को उन्होंने जिस तरह से साधा है वैसा आज बहुत कम देखने में आता है| ज्यादातर मध्यवर्गीय रचनाकार उसे मध्यवर्गीय दायरों में ही घुमाते रहने के अभ्यस्त हैं| अपने दायरे से बाहर निकालकर उसे जनव्यापी बना देने के न तो उनके पास जीवनानुभव हैं न ही वह जीवन-दृष्टि जो अपने समय को उठाकर ऊपर से नीचे ले जाकर फैला देती है| जीवन के ज्यादा व्यापक और खतरनाक बुनियादी सवाल भी उनके यहाँ बहुत नहीं होते| सवाल तो होते हैं किन्तु बेहद सिकुड़े सहमे और अपने भीतर सिमटे हुए से| यह प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के साथ उसकी एक मुख्य बोली बुन्देली में लिखने के ग़ज़ल –साधक महेश कटारे सुगम के यहाँ ऐसा नहीं है| उनके यहाँ खतरनाक और जीवन के बुनियादी सवाल भी बेझिझक रहते हैं जो उनकी ग़ज़ल को राजनीतिक अभिप्रायों से सम्बद्ध करते हुए न हिचकिचाते हैं और न ही राजनीति के सवाल पर नाक-भौंह सिकोड़ते हैं| कहना न होगा कि वे अदम गोंडवी की धधकती और गरजती हुई यथार्थवादी ग़ज़ल परम्परा को आगे ले जाने वाले गज़लकार हैं|
Key Feature | |
Brand | : Other Manufacturers |
Books Specification | |
Binding | : Paper Back |
Language | : Hindi |
Number of Pages | : 127 |
More Details |
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Maximum Retail Price (inclusive of all taxes) | Rs.180 |
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Country of Origin / Manufacture / Assembly | India |